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अध्यात्मसाधना
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दिया है । ईश्वर-प्रणिधानके स्थूल शब्दार्थमें विभिन्न परम्पराओंमें कुछ मतभेद अवश्य है, किन्तु ईश्वर प्रणिधानके विशाल और वास्तविक अर्थमें किसीका मतभेद नहीं है। कोई ईश्वर या परमात्माको पृथक् मानकर उसका प्रणिधान करता है, कोई जीवात्मासे अपृथक् परब्रह्मको ही परमात्मा कहकर उसका प्रणिधान करता है तो कोई मुक्तिप्राप्त जीवको ही परमात्मा मानकर उसका प्रणिधान करता है। किन्तु आखिरकार बात एक ही है और वह यह कि निष्कामभावसे महान् आदर्शके साक्षित्वमें सब कुछ करना । - समाज और विश्वके साथके सम्बन्धको विस्तृत एवं विशुद्ध करना हो अथवा उपनिषद्की भाषामें 'भूमा' बनना हो अथवा बौद्ध परिभाषाके अनुसार महायानी या ब्रह्मविहारी बनना हो तो साधकके लिए अनिवार्य है कि वह अन्तनिरीक्षणकी ओर मुड़े तथा चित्ततंत्रके सतत गतिशील वृत्तिचक्रको देखे और क्लेशवास- । नाओंके कारण वह वृत्तिचक्र किस प्रकार क्षुब्ध होता है, इसकी जाँच करे । क्लेशों और वृत्तियोंके बलाबलकी यथावत् जाँच कर कब किस क्लेश और वृत्तिके वेगसे इतर क्लेश और वृत्तियाँ वेग पकड़ती हैं और कब अन्य क्लेश और वृत्तिके वेगसे वैसा होता है इसका विवेकपूर्वक विचार साधक करे । यदि साधक क्लेश और वृत्तिचक्रका ठीक-ठीक निरीक्षण व पृथक्करण नहीं करता है तो वह क्लिष्ट वृत्तियोंके स्थानपर अक्लिष्ट वृत्तियोंको स्थिर करने में पूर्ण सफल नहीं हो सकता। इसीलिए योगके अंगोंमें समाधिकी प्रक्रियाका भी समावेश किया गया है।
१. भगवान् बुद्धने साधना-कालमें इस प्रकारके वृत्तिचक्रका जो निरीक्षण किया था उसका वर्णन मज्झिमनिकायके द्वेधावितक्कसुत्तन्त (१६) में है।