________________
१०५
अध्यात्मसाधना दोषोंमें अनिष्ट चिन्तन करनेका सूचन भी उसमें किया गया है। वैसे ही-तत्त्वार्थाधिगमसूत्र में भी हिंसादि दोषोंसे सर्वथा विरत होनेको महाव्रत कहा गया है और यह भी बताया गया है कि यदि हिंसा, असत्य आदि दोषोंके सेवनका विचार पूर्वसंस्कारवश मनमें उत्पन्न हो तो साधकको हिंसा आदि पाँच दोषोंमें ऐहिक एवं पारलौकिक अनिष्टका चिन्तन करना चाहिये । विशुद्धिमार्ग (१.१५३) में भी शील ( यम अथवा महाव्रत) के खण्डित होनेके विविध निमित्तोंका उल्लेख करके उसे अखण्ड रखने के उपायके रूपमें शीलविपत्तिके अनिष्टों एवं शीलसम्पत्तिके गुणोंका बहुत विस्तारसे वर्णन किया गया है जो एक प्रकारसे योगशास्त्र और तत्त्वार्थसूत्रकी वितर्कबाधाके समय चिन्तन करनेकी प्रतिपक्ष भावनाका विशद भाष्य है।
दूसरा अंग नियम है । यह मुख्य रूपसे स्वयं साधकके साथ सम्बन्ध रखता है । जीवन्मुक्तिविवेकमें विद्यारण्य स्वामी ठीक ही कहते हैं कि जो सकाम धर्मसे निवृत्त करके निष्काम धमकी ओर 'प्रेरित करे वह नियम है | नियममें अनेक बातोंका समावेश हो सकता है, किन्तु उनमें तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान मुख्य हैं जिन्हें योगशास्त्र में क्रियायोग कहा है । सभी साधकोंको
१. वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम् । -योगदर्शन २. ३३ २. हिंसादिष्विहामुत्र चापायावद्यदर्शनम् ।
-तत्त्वार्थसूत्र ७.४ तथा उसका भाष्य ३. जन्महेतोः काम्यधर्मान्निवर्त्य मोक्षहेतौ निष्कामधर्मे नियमन्ति प्रेरयन्ति।
-जीवनमुक्तिविवेक ४. शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।
-योगदर्शन २. ३२ ५. तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः। -योगदर्शन २.१