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________________ १०४ श्रध्यात्मविचारणा लिए यम अंगका अनुष्ठान तभी सिद्ध माना जाता है जब वह लोभ, क्रोध और मोहके परिहारके साथ ही व्रत पाले । इस प्रकार - के व्रतों एवं महात्रतों के सम्यक् परिपालनसे योगीकी आन्तरिक शुद्धि तो होती ही है, साथ ही साथ उसका चराचर विश्वके साथका सम्बन्ध भी विशुद्ध बनता है । यम योगका प्रथम अंग है । इसका अर्थ यह है कि यह आध्यात्मिक साधनाकी सर्वप्रथम और ठोस भूमिका है । इस भूमिकाके अभाव में योगके शेष अंग कभी भी योगमें साधक नहीं हो सकते । इसीलिए गीताने दैवीसम्पत् में' अहिंसा, सत्य आदि सद्गुणोंको मुख्य स्थान दिया है । बुद्धने शीलरूपसे इन सद्गुणोंका वर्णन कर इन्हें समाधिकी भूमिकाके रूपमें प्रस्तुत किया है । निर्ग्रन्थ परम्पराने भी अणुव्रत महाव्रत के रूपमें विरति अथवा चारित्रको ही आध्यात्मिक विकासकी भूमिकाके तौरपर सर्वप्रथम स्थान दिया है । 3 योगशास्त्रमें प्रत्येक अवस्थामें आचरण करने योग्य अहिंसा आदि पाँच यमोंका योगीके महाव्रतोंके रूपमें उल्लेख किया गया है और कहा गया है कि इस प्रकारके महाव्रतोंके लिए जाति, देश, काल अथवा समयकी कोई सीमा नहीं होती । इसी प्रकार उसमें महाव्रतोंको जीवनमें उतारते - उतारते पूर्वसंस्कारवश बीचबीच में हिंसा, असत्य आदि दोषोंका सेवन करनेकी वृत्ति जाग्रत् हो जाय तो ऐसी वितर्कबाधाओं को दूर करने के हेतु हिंसा आदि १. गीता १६, १-३ २. सीलेन च सासनम्स आदिकल्याणता पकासिता होति । सीलं — विसुद्धिमग्ग १. १० सासनम्स आदि । ३. जाति-देश-काल-संमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् । -योगदर्शन २. ३१
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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