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________________ अध्यात्मसाधना १०३ आध्यात्मिक साधना अर्थात् योगकी प्रवृत्ति कालकी दृष्टिसे बहुत लम्बी है, और यह है भी द्विलक्षी । इसका एक लक्ष्य यह है कि साधक सर्वप्रथम आसपासके सामाजिक सम्बन्धको तथा क्रमशः विश्वके साथके सम्बन्धको समझे, उसे विवेकपूर्वक विस्तृत करे तथा उत्तरोत्तर विशुद्ध करता रहे। दूसरा लक्ष्य यह है कि वह बहिर्गामी सम्बन्धमें विस्तार एवं विशुद्धिकरणके साथसाथ आन्तरिक चित्तभूमिको भी विशुद्ध एवं उदात्त बनाता जाय। स्वरूपकी दृष्टिसे भी यह द्विलक्षी साधना चढ़ते-उतरते अंगोंसे सिद्ध होती है-पूर्ण होती है। योगशास्त्रमें ऐसे आठ अंग गिनाये गये हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि'। इन अंगोंको दो भागोंमें बाँटकर उनके स्वरूप एवं कार्यका विचार करें तो योगसिद्धिमें प्रत्येक अंगका क्या स्थान है, यह कुछ सरलतासे समझमें आ सकेगा। प्रथम भागमें यम आता है और दूसरे में नियमसे लेकर समाधि तकके बाक़ीके समस्त अंग। __ यम यह सूचित करता है कि साधक योगीको समाज तथा चराचर विश्वके साथ किस प्रकारका बर्ताव करना चाहिये अथवा उसे किस प्रकारका जीवन जीना चाहिये। हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रह-ये पाँच दोष जीवनव्यवहारमें बहुत साधारण होते हैं तथा इनसे सामाजिक जीवन कलुषित होता है। इन दोषोंका परिहार करना अर्थात् अहिंसा, सत्य आदि व्रतों या महाव्रतोंका पालन करना ही यम है । जीवन-व्यवहारमें हिंसा, असत्य आदि तभी दोषरूप बनते हैं जब उनका आचरण लोभ, क्रोध तथा मोह से प्रेरित होकर किया जाता है। इसलिए योगीके १. योगसूत्र, २. २६ २. योगसूत्र -२.३०
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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