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श्रध्यात्मविचारणा
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राग, द्वेष आदि नामोंसे अथवा तृष्णा पदसे बताये गये हैं उन्हीं दोषोंका जैनपरम्परामें चारित्रमोह अथवा कषाय पदसे निर्देश किया गया है । इस प्रकार वैदिक, बौद्ध और जैन सभी परम्पराएँ संसारके मूल कारणके तौरपर अविद्या अथवा मोहको मानकर शेष समग्र दोषोंको उसके परिणाम ही मानती हैं ।
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आध्यात्मिक साधकोंने यह अनुभव किया कि दोष निवारणका एकमात्र उपाय उस उस दोष से विपरीत स्वभाववाले, पर साध्य के अनुकूल हो, ऐसे मार्गका अवलम्बन लेना ही है । इस अनुभव के आधारपर उन्होंने अविद्याके निवारणका उपाय विद्या ही माना । विद्या प्रकट होनेपर अविद्या नहीं रहती और अविद्याकी अनुपस्थिति में उससे उत्पन्न होनेवाले अन्य क्लेश स्वतः शान्त हो जाते हैं । इसीलिए करणादने विद्याकी विरोधिनी विद्याका निरूपण किया है। पतंजलिने विद्याका विवेकख्यातिके रूपसे वर्णन किया है । अक्षपादने विद्या अथवा विवेकख्याति के स्थान - में तत्त्वज्ञान अथवा सम्यग्ज्ञान पदका प्रयोग किया है। जैनपरम्परा भी मुख्यरूपसे सम्यग्ज्ञान पदसे ही यह बात कहती है । बौद्धपरम्परा में इसके लिए प्रधानतया विपस्सना अथवा प्रज्ञा २ शब्दका प्रयोग किया गया है । इस तरह सभी परम्पराओंके अनुसार जो अर्थ फलित होता है वह यह है कि विद्या, तत्त्वज्ञान, सम्यग्ज्ञान अथवा प्रज्ञासे अविद्या या मोहका नाश होता है। इसका नाश होते ही राग-द्वेष आदि क्लेश अथवा कषाय भी नष्ट हो जाते हैं। इनके नष्ट होते ही पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म आदिका भी नाश हो जाता है तथा जन्मपरम्परारूप संसारका
१. इस विषय में विशेष अध्ययन के लिए देखो 'गणधरवाद' (गुजराती ) की प्रस्तावना पृ० ६६- १०१.
२. विशुद्धिमग्ग १. ७