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अध्यात्मसाधना अन्त आ जाता है। इस सर्वसम्मत मान्यताका अक्षपादके एक संक्षिप्त सूत्र में बहुत सुन्दर ढंगसे वर्णन किया गया है। वह सूत्र है-'दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः।' (१.१.२)
बन्धन तथा संसारका मुख्य कारण अविद्या है-इस सिद्धान्त अथवा सत्यपर पहुँचते-पहुँचते आध्यात्मिक साधकोंने यह भी विचार किया कि अविद्या क्या है और उसका विषय क्या है ? वैसे तो अविद्या अथवा भ्रमका पद-पदपर अनुभव होता है। रस्सीमें साँपका भ्रम हो अथवा विपरीत मार्गको अमुक नगरमें पहुँचनेवाला मार्ग मान लिया जाय तो इस अविद्या या भ्रमसे कठिनाई अवश्य उत्पन्न होगी, पर इससे संसार-परम्परा निर्मित नहीं होगी। अतः जन्म-परम्पराका निर्माण करनेवाली अविद्या अथवा मोह कौनसा है तथा उसका विषय क्या है, यह प्रश्न उत्पन्न होता है। इसका उत्तर प्राप्त करनेके लिए आध्यात्मिक साधकोंने गहरा चिन्तन किया और उन्हें निर्विवादरूपसे एक ही समान उत्तर मिला कि आत्मा, चैतन्य अथवा स्वरूपका अज्ञान ही मल अविद्या है और यही अविद्या भव परम्पराका कारण है। उन्हें अनुभव हुआ कि देह, इन्द्रिय, मन, प्राण आदि जीवनके आयतनोंमें आत्मबुद्धि, चेतनबुद्धि अथवा अहंप्रत्ययद्वारा सुखकी प्राप्तिके लिए जो प्रयत्न किया जाता है उससे होनेवाली सुख-संवेदना न तो स्थायी होती है और न अन्य चेतन-जगत्के सुख-संवेदनाओंके साथ पूर्ण रूपसे सुसंवादी ही। जो सुख इतर चेतनसष्टिके सुखका विरोधी न हो तथा जिस सुखमें इतर समग्र चेतनसृष्टिके सुखका अथवा अभेद-सम्बन्धका अनुसन्धान हो वही सुख स्थायी, व्यापक तथा अविसंवादी कहलाता है। ऐसा सुख देह, इन्द्रिय, मन तथा प्राण जैसी मूर्त, भौतिक, विनश्वर एवं देश-कालसे अत्यन्त