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श्रध्यात्मविचारणा
प्रस्तुत चार सत्योंमें से भी यहाँ तो मुख्य रूपसे दो ही सत्योंपर विचार करना अभीष्ट है । इनका विचार करनेपर शेष दो सत्यों पर भी प्रकाश पड़ ही जायगा । वे दो सत्य हैं - (१) बन्धन, दुःख या संसारका कारण और (२) उसे दूर करने के उपाय ।
प्रत्येक आध्यात्मिक साधकने संसारके मूल कारणके तौरपर अविद्या ही मानी है। अविद्या क्लेशोंका मूल है। इसकी उपस्थिति में इतर राग-द्वेष आदि कषाय- क्लेश उत्पन्न हुए बिना नहीं रह सकते। योगशास्त्र में पाँच क्लेशोंका निर्देश कर उनमें समस्त दोषोंका समावेश किया गया है। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश - ये पाँच क्लेश हैं और अविद्याको ही अवशिष्ट क्लेशों का क्षेत्र अर्थात् प्रसवभूमि कहा गया है। ये ही पाँच क्लेश सांख्यकारिकामें पाँच विपर्ययों के नामसे निर्दिष्ट हैं । कणाद ने अपने सूत्रों में अविद्याको ही मूलदोष के रूपमें बताते हुए उसके कार्यके तौरपर इतर दोषोंको बताया है । अक्षपादने अविद्या स्थान में मोह पदका प्रयोग किया है और कहा है कि यदि मोह न हो तो इतर राग-द्वेष आदि दोषोंकी उत्पत्ति ही न हो' | पतंजलिका सूत्र 'अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नो
१. अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्चक्लेशाः ।
श्रविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ।
-- योगसूत्र २.३-४
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४७-४८
२. 'पञ्च विपर्ययभेदाः' इत्यादि सांख्यकारिका
३. करणादका यह मन्तव्य प्रशस्तपादभाष्य के संसारापवर्ग प्रकरण में
निरूपित है ।
४. दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः । - न्यायसूत्र १. १. २