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________________ अध्यात्मविचारणा वैदिक, बौद्ध और जैन इन तीनों जीवित भारतीय धर्मपरम्पराओंमें उपर्युक्त चार सिद्धान्त या सत्य किस प्रकार निरूपित किये गये हैं, यह अब हम देखें। वैदिक परम्पराका वाङ्मय अतिविशाल है। वह अनेक भाषाओंमें ग्रथित है। उसमें न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, पूर्वमीमांसा-उत्तरमीमांसा आदि अनेक दार्शनिक प्रवाह विद्यमान हैं। उपनिषद् तथा गीता ये दो ग्रन्थ ऐसे हैं जो समस्त वैदिक परम्पराओंको मान्य हैं । उनमें ये चार सिद्धान्त मिलते तो हैं, किन्तु उनका जैसा स्पष्ट और उठावदार चित्र योगशास्त्रमें है वैसा अन्यत्र सुलभ नहीं। यह योगशास्त्र सभी प्राचीन-अर्वाचीन, छोटी-बड़ी वैदिक परम्पराओंको मान्य भी है। अतः उसके आधारपर इन चार सिद्धान्तोंका निर्देश यदि हम यहाँपर करें तो उसे वैदिक परम्पराका सर्वसम्मत मन्तव्य ही समझना चाहिये। पतञ्जलिका समय कुछ भी रहा हो, किन्तु उसका योगशास्त्र पूर्ववर्ती अनेक शताब्दियोंकी योगसाधनाके अनुभवका निचोड़ है, इसमें दो मत नहीं हो सकते। यह योगशास्त्र आध्यात्मिक साधनाके मूलभूत चार सत्योंका विस्तृत एवं विशद विवेचन करता है। उसमें इन सत्योंको हेय, हेयहेतु, हान और हानोपाय-इस प्रकार चतुर्ग्रहके रूपमें बताया है । इसीका समर्थन न्यायसूत्रके भाष्यकार वात्स्यायने अपने भाष्यमें संक्षेपसे किया है।' १. हेयं दुःखमनातगम् ॥१६॥ द्रष्टदृश्ययोः संयोगो हेय हेतुः ॥१७।। तदभावात् संयोगाभावो हानं तद् दृशे: कैवल्यम् ॥ २५ ॥ विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः ॥ २६ ॥ -योगदर्शन, साधनपाद २. हेयं तस्य निर्वर्तकं हानमात्यन्तिकं तस्योपायोऽधिगन्तव्य इत्येतानि चत्वार्यर्थपदानि सम्यग्बुद्धवा निःश्रेयसमधिगच्छति। -न्यायभाष्य १.१.१
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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