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wwwwwwwन पत्रहारत्व MAAMAN ऐसी व्यवस्था नहीं है, जो जैन धर्म की विशिष्टताओं अथवा उसके व्यवहार्य स्वरुप को जीकर प्रतिपादित कर सके। साधुओं से आज्ञा थी - आज भी है - कि वे चलते-फिरते विद्यालयों की तरह आमजैन को शिक्षित करेंगे; किन्तु वे भी राग-द्वेष, ख्याति-कीर्ति के दुष्चक्र में इतने लिप्त हैं कि आशा लगभग धुंधल गयी है।'
धर्म को वे क्रियाकाण्ड तक सीमित नहीं देखना चाहते, जीवन में उसका प्रभाव झलकना चाहिए। इसीलिए डॉ. नेमचन्द्र जी लिखते हैं - "धर्म का दायित्व था कि वह मनुष्य को नैतिक, सांस्कृतिक और अध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि प्रदान करे; किन्तु वह व्यर्थ के निष्प्राण क्रियाकाण्डों में फंस उलझ गया है। उसका ध्यान इमारतों पर है; इमारतों में विराजमान उन उदाहरणों पर नहीं है, जो मानवता का कायाकल्प कर सकते हैं। उसने कंकाल की आराधना को अपना लक्ष्य बना लिया है, वह जिन आदर्शों और उदारहरणों के प्रतिनिधि हैं, उनकी निरन्तर उपेक्षा कर रहा है।'
अहिंसा का प्रतिपादन सम्पादक नेमीचन्दजी का प्रिय विषय है। उन्होंने समाज एवं देश में अहिंसा एवं शाकाहार का अलख जगाया है। अहिंसा के सम्बन्ध में उनका कथन है - "हिंसा के मुकाबले के लिए हमें आज एक मौन-शान्त-विधायक क्रान्ति की आवश्यकता है, जिसे शोरगुल/गरज-तरज के साथ नहीं, कीतु परिपूर्ण सादगी के साथ हर आदमी में शुरु करना होगा। मामूली-से-मामूली मौरे पर भी हमें सदाचार के स्वागत के लिए अपनी भुजाएँ-निष्काम भुजाएँ पसारनी होगी। हमें घर हो या देरासर, उपासरा हो या थानक, सर्वत्र इस क्रान्ति का उद्घोष करना होगा। हमें कोई हक नहीं है कि जिस देश में लाखो-लाख पशुओं को मौत के घाट उतार दिया जाता हो वहाँ हम उस हिंसा का विरोध न कर अहिंसा के सिर्फ गीत गायें, उसका जयघोष करें और निरुपित करें कि वह परमधर्म है। वह सब हमारे दोहरे/दोगले चरित्र का निरुपक है। आज हमारे रोजभरों के जीवन, हमारे देवालयों/आराधना-स्थलों में हिंसक
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