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न पत्रठारत्व MMMMM का सूक्ष्मता से अवलोकन करते हैं तथा उसकी अभिव्यक्ति में भी विशिष्ट दृष्टि रखते हैं। शब्दों का चयन करना उन्हें आता है। उनके लेखन में सभी शब्द अपनी महत्ता रखते हैं। फिजूल शब्द-प्रयोग से वे बचते हैं।
(वे एक पत्रकार होने के साथ कुशल लेखक भी हैं एवं सम्पादक भी। तीर्थंकर में प्रमुख समाचारों को स्थान दिया जाता है, किन्तु इसे वे एक-दो पृष्ठों में ही समटे लेते हैं। जैन समाज, अहिंसा, शाकाहार से सम्बद्ध समाचार हो उसमें विहित होते हैं। कभी किसी पुस्तक की समीक्षा भी प्रकाशित होती थी। उन्हें पत्र लेखन का बहुत शौक था। हजारों पत्र उन्होंने लिखे एवं उन पत्रों में आत्मीयता के साथ कोई नया चिन्तन एवं संदेश भी रहता था । उनके कुछ पत्र तीर्थंकर में भी प्रकाशित हुए। एक बार उन्होंने अपनी बहिन को दशलक्षण पर्व पर पत्र लिखे। वे पत्रा बहुत श्रम से लिखे गए जिनमें पर्युषण को आत्मोत्थान के चरणबद्ध कार्यक्रम के रुप में प्रस्तुत करने की कोशिश की। दोनों बहनों को लिखे गये ये पत्र पर्युषण-पत्रावली के रुप में जाने गए। पर्युषण के सम्बन्ध में वे लिखते हैं - ‘पर्युषण परिग्रह - निवृत्ति का पर्व है, लेकिन इस अवसर पर हम अपने वैयक्तिक और सामाजिक वैभव का जमकर प्रदर्शन करते हैं, जो हमारे सांस्कृति खोखलेपन का परिचालक है। सादगी और शुचिता पर्युषण की अनिवार्यताएँ हैं; लेकिन हमने हमने अच्छी वेशभूषा, खूब रोशनी, चमक-दमक, कोलाहल, व्यर्थ के सांस्कृतिक कार्यक्रमों को पर्युषण का पर्याय मान लिया है।' तीखी टिप्पणियों करने में डॉ. नेमीचन्द जी निर्भीक रहे। वे मूलतः दिगम्बर जैन थे, किन्तु श्वेताम्बरों की स्थानकवासी, मूर्तिपूजक एवं तेरापंथ सम्प्रदायों में भी उनका आनाजाना था। वे जैन एकता के हिमायती थे तथा जैनों द्वारा रचनात्मक कार्यों को प्रोत्साहित करते थे। नवम्बर 1996 के अंक में उन्होंने लिखा है. 'आज लगभग सम्पूर्ण जैन समाज पंथ-गच्छ की संकीर्णता में विभक्त/आबद्ध है। जैन धर्म और दर्शन के प्रति सामान्य जैन में कोई उत्कष्ठा नहीं है। हमारी शिक्षण संस्थाएं लगभग दफन हैं। कहीं कोई
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