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भैन पत्रारत्व
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बौद्धिक जागरुकता के परिप्रेक्ष्य में सर्वाधिक उत्तम पत्रिका " तीर्थंकर" इन्दौर को मानता हूँ । जहाँ महावीर की वाणी का प्राधान्य है, सम्प्रदाय की गंध भी नहीं । वैसे हर पत्रिका के विषय में लिखा जा सकता है। मेरी दृष्टि से जो पत्रिकायें समन्वयवादी दृष्टिकोण को लेकर चली हैं, जिन्होने अहिंसा - शाकाहार के लिए कलम चलाई है वे ही श्रेष्ठ हैं । वे ही जैनत्व की प्रतिनिधि पत्रिकायें मैं मानता हूँ । यों कहूँ कि ये पत्रिकायें मुक्त सागर सी है और व्यक्तिगत साधुओं की पत्रिकायें, या मात्र सम्प्रदाय विशेष की पत्रिकायें कूपमंडूक हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, वे पत्रिकायें फिर किसी भी सम्प्रदाय की हो।
अंत में इतना ही कि आजकी पत्रिकायें और पत्रकार दिशा भटक रहे हैं इसी कारण उनकी दशा विश्वसनीय भी नहीं रही है । पत्रकार बंधु मुझे क्षमा करेंगे - पर में भी पत्रकार हूँ । पत्रकार यदि सम्प्रदाय में बँधता है तो उसका कद छोटा हो जाता है। उसे मुक्ताकाश में स्वतंत्र पंखी की तरह उड़ना चाहिए । हमारी दिशा भटकन का एक कारण हमारी शहनशक्ति की कमी है। हम सम्प्रदाय या वैचारिक भेद के कारण उस पर विचार नहीं करते - तुरंत वाद-विवाद या व्यक्तिगत राग-द्वेष को मुख्य मानकर परस्पर कीचड़ उछालने लगते हैं जिससे हम अपनी ही जाँघ उघाड़कर लाजों से मरते हैं ।
पत्रकार जितना स्वस्थ, संतुलित मगज का, अध्ययन में पूर्ण, स्वाध्यायी होगा उतना ही वह अपनी दशा में दृढ़ रहकर सही दिशा में जा सकेगा।
एक बात कहना चाहूँगा कि जैन पत्रकारिता में वे लोग भुला दिये गये हैं जिनका राष्ट्रीय स्तर पर देशवासियों में सन्मान था । जो पूरे धर्म-समाज का प्रतिनिधित्व करते थे। ऐसे संपादक चारों सम्प्रदाय के पत्रकारों में अमर है । हम धर्मनेता या समाजनेता के रुप में सम्प्रदाय से ऊपर भले ही न उठ पायें पर हमारी " तीसरी आँख" सर्वदृष्टा होनी चाहिए हमारा चौथा स्तंभ मजबूत होना चाहिए । पत्रकार बिकाऊ न हो पर समाज की बुराइयों का खरीददार हो । सत्य की आँख से देखने की ऊँचाई तक उठे। समाज को उठाये ।
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