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________________ भूमिका [ १६ मञ्जरी की शैली वृत्त रत्नाकर से मिलती-जुलती है। इसमें ६ स्तबक हैं। छठे स्तबक में गद्य-काव्य और उनके भेदों पर विचार है जो कि इसकी विशेषता है। १८. वृत्तमुक्तावली'-इसके प्रणेता तैलंगवंशीय कवि-कलानिधि देवर्षि कृष्णभट्ट हैं । इस ग्रन्थ का रचनाकाल १७८८ से १७६६ के मध्य का है । इसमें तीन गुम्फ हैं :-१. वैदिक छन्द, २. मात्रिक छंद, और ३. वर्णिक वृत्त । पिंगल और जयदेव के पश्चात् प्राप्त एवं प्रसिद्ध ग्रन्थों में वैदिक-छंदों का निरूपण न होने से इस ग्रंथ का महत्त्व बढ़ जाता है । मात्रिक-गुम्फ प्राकृतपिंगल और वाणीभूषण से अनुप्राणित है । इसमें ४२ दण्डक-छंदों के लक्षण एवं उदाहरण प्राप्त हैं। १६. वाग्वल्लभ-इसके प्रणेता कवि दु:खभंजन शर्मा हैं जो कि काशीनिवासी कान्यकुब्जवंशीय प्रताप शर्मा के पौत्र और चूडामणि शर्मा के पुत्र हैं । इसकी 'वरणिनी' नामक टीका को रचना दुःखभंजन कवि के ही पुत्र महोपाध्याय देवीप्रसाद शर्मा ने वि० सं० १९८५ में की है, अत: इसका रचना समय १९५० से १६७० वि० सं० का मध्य माना जा सकता है । गैरोला ने इनका समय १६वीं शती माना है जो कि भ्रामक है ।' कवि दुःखभंजन ज्योतिर्विद् तो थे ही ; इसीलिए जहाँ आज तक के प्राप्त छंदःशास्त्रों में प्रयुक्त छंद प्रायशः ग्रहण किये हैं तो वहाँ प्रस्तार का आधार लेकर सैकड़ों नवोन छंद भी निर्मित किये हैं । इस ग्रंथ में कुल १५३६ छन्दों का निरूपण है । शैली वृत्तरत्नाकर की है । प्रत्येक वणिकवृत्त प्रस्तार-संख्या के क्रम से दिया है । इनके अतिरिक्त छंदःशास्त्र के सैकड़ों ग्रंथ और उनकी टीकायें प्राप्त होती हैं जिनकी सूची मैंने इसी ग्रंथ के वें परिशिष्ट में दी है। वृत्तमौक्तिक भी छंदःशास्त्र का बड़ा ही प्रौढ़ और महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। चन्द्रशेखर भट्ट ने अपने इस ग्रंथ में जिस पांडित्य का परिचय दिया है, वह केवल उन ही तक सीमित नहीं था। उनकी वंश-परम्परा में जैसा कि हम देखेंगे बड़े बड़े माने हुए प्रतिभा-सम्पन्न विद्वान् हुए, और इसमें संदेह नहीं कि ऐसी ज्ञान-समृद्ध परम्परा में जिसका व्यक्तित्व विकसित हुआ हो वह अपने कृतित्व और व्यक्तित्व के लिये उन पूर्वजों का सब से अधिक ऋणी होगा। इसीलिये कवि के परिचय से पूर्व ग्रन्थ के माहात्म्य की पृष्ठभूमि को समझने के लिए सर्वप्रथम कवि के पूर्वजों का परिचय प्राप्त कर लेना भी वांछनीय है। १-राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपूर से प्रकाशित २-गैरोला : संस्कृत साहित्य का इतिहास पृ. १६३
SR No.023464
Book TitleVruttamauktik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishtan
Publication Year1965
Total Pages678
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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