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________________ अगच्छंस्तद्विशेषाणामनभिज्ञश्च जायते । अज्ञाततद्विशेषस्तु, बध्यते न विमुच्यते ||४४ ॥ आत्मा में रमा हुआ व्यक्ति इतर पदार्थों की विशेषताओं को नहीं जानता। इस मामले में वह अज्ञानी होता है। लेकिन अपने इस अज्ञान से वह कर्मों के बन्धन में बँधता नहीं बल्कि छूट जाता है । परः परस्ततो दुःखमात्मैवात्मा ततः सुखम्। अत एव महात्मानस्तन्निमित्तं कृतोद्यमाः ।। ४५ ।। पर पदार्थ पर (पराए) हैं। इसलिए दुःख देते हैं। आत्मा ही अपनी है। इसलिए सुख देती है। इसीलिए तो तमाम महापुरुष आत्मा को ही पाने का प्रयत्न करते रहे हैं। अविद्वान् पुद्गलद्रव्यं योऽभिनन्दति तस्य तत् । , न जातु जन्तोः सामीप्यं चतुर्गतिषु मुञ्चति ॥ ४६ ॥ जो अज्ञानी व्यक्ति पुद्गल द्रव्य का अभिनन्दन करता है पुद्गल द्रव्य उसका साथ चार गतियों में भी नहीं छोड़ता । आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य, व्यवहारबहिः स्थितेः । जायते परमानन्दः, कश्चिद्योगेन योगिनः || ४७॥ आत्मध्यान में लीन योगी व्यवहार की दुनिया में भले ही अजनबी हो जाता हो पर योग से उसे अपूर्व आनन्द मिलता है। १८
SR No.023439
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granth Karyalay
Publication Year
Total Pages26
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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