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________________ आनन्दो निर्दहत्युद्धं, कर्मेन्धनमनारतम् । न चासौ खिद्यते योगी, बहिर्दुःखेष्वचेतनः ।।४८।। आत्मध्यान में लीन होने का आनन्द योगी के कर्म-ईंधन को निरन्तर जलाकर भस्म करता रहता है। वह योगी बाहरी दुःखों से अनभिज्ञ रहता है और कभी दुःखी नहीं होता। अविद्याभिदुरं ज्योतिः, परं ज्ञानमयं महत् । तत्प्रष्टव्यं तदेष्टव्यं, तद् द्रष्टव्यं मुमुक्षुभिः ।।४९।। अज्ञान का नाश करनेवाला आत्मा का श्रेष्ठ प्रकाश परम ज्ञानमय है। मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक व्यक्तियों को उस प्रकाश की ही तलाश होनी चाहिए, उसे ही पाने का प्रयत्न करना चाहिए और उसके ही दर्शन करने चाहिए। जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य इत्यसौ तत्त्वसङ्ग्रहः । यदन्यदुच्यते किञ्चित्, सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः ।।५०।। जीव (आत्मा) और पुद्गल को अलग-अलग समझना ही मूल बात है। इसके अलावा जो भी कुछ और कहा जाता है वह इसी बुनियादी बात का विस्तार है। इष्टोपदेशमिति सम्यगधीत्य धीमान्, मानापमानसमतां स्वमताद्वितन्य। मुक्ताग्रहो विनिवसन् सजने वने वा, मुक्तिश्रियं निरुपमामुपयाति भव्यः ।।५१।। बुद्धिमान और भव्य व्यक्ति इस इष्टोपदेश ग्रन्थ को भलीभाँति पढ़कर मान-अपमान के बीच समता भाव को जगह देते हैं। फिर वे बस्ती में रहें या जंगल में, उन्हें मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।
SR No.023439
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granth Karyalay
Publication Year
Total Pages26
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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