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________________ इच्छत्येकान्तसंवासं, निर्जनं जनितादरः । निजकार्यवशात्किञ्चिदुक्त्वा विस्मरति द्रुतम्।।४०।। श्रेष्ठ व्यक्ति एकान्त पसन्द करते हैं। एकान्त पाकर खुश होते हैं। वे अपने किसी काम के लिए किसी से भी नहीं कहते। अगर कभी कहना ही पड़ जाय तो कहे हुए को याद नहीं रखे रहते। ब्रुवन्नपि हि न ब्रूते, गच्छन्नपि न गच्छति। स्थिरीकृतात्मतत्त्वस्तु, पश्यन्नपि न पश्यति ।।४१।। आत्म तत्त्व में अवस्थित व्यक्ति बोलता हुआ भी नहीं बोलता, चलता हुआ भी नहीं चलता और देखता हुआ भी नहीं देखता। किमिदं कीदृशं कस्य, कस्मात्क्वेत्यविशेषयन्। स्वदेहमपि नावैति योगी योगपरायणः ।।४२।। आत्मध्यान में लीन व्यक्ति यह क्या है, कैसा, किसका, कहाँ और किस वजह से है ऐसी जिज्ञासाओं में नहीं पड़ता। दरअसल उसे तो अपने शरीर की भी सुध नहीं रहती। यो यत्र निवसन्नास्ते, स तत्र कुरुते रतिम्। यो यत्र रमते तस्मादन्यत्र स न गच्छति।।४३।। जो जिस जगह रहता है वह उस जगह में रम जाता है और जो जिस जगह में रम जाता है वह उसे छोड़कर दूसरी जगह नहीं जाता। [आत्मा में रमा हुआ व्यक्ति भी ऐसा ही होता है।]
SR No.023439
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granth Karyalay
Publication Year
Total Pages26
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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