SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . ६१ 8- तत्त्वोपनिषद् कोऽत्र दोष इति चेत् ? दशापेक्षया न कोऽपीति ब्रूमः। कुलाङ्गनाया एवोचितमिदम्, न तु परीक्षकस्य, तस्य तु दोष एव कुशलोज्झिततादिरिति।।२८।। इत्थं च गुणावबोध एव परमोपादेयः, परीक्षा च तद्धेतुरिति तद्विधिमुपदर्शयन्नाहन गम्यते किं प्रकृतं ? किमुत्तरं ?, किमुक्तमेवं किमतोऽन्यथा भवेत् ? सदस्सु चोच्चैरभिनीय कथ्यते, किमस्ति तेषामजितं महात्मनाम्।।२९।। याथार्थ्याग्रहप्रयुक्तं बाधादिदोषदर्शनहेतुकतत्सम्भावनाशयोदितं परीक्षकवचनमाह न गम्यते इति। युक्त्याऽनुपपन्नमिदमिति हृदयम्। नहीं, मगर यह बात कुलाङ्गना के लिये है। उसकी भूमिका ही ऐसी है कि उसके लिये यही निर्दोष है, यही धर्म है। मगर तत्त्वान्वेषी परीक्षक के लिये यह बिल्कुल योग्य नहीं, उसका तो यह दोष ही है। उसका नुकसान भी कल्याण नहीं पाना इत्यादि बताया वो भी भुगतना ही पड़ेगा। इस लिये गौरव तो गुणावबोधजनित ही होना चाहिए।।२८।। इस तरह गुणावबोध की प्राप्ति ही परम कर्तव्य है। और उसकी प्राप्ति परीक्षा से ही हो सकती है, इस लिये परीक्षा का दिग्दर्शन कराते क्याँ प्रकृत है ? क्याँ उत्तर है ? यह ज्ञात नहीं होता। जो कहा है वह सत्य है, या उससे विपरीत सत्य है ? इस तरह जो महापुरुष सभाओं में बुलंदता के साथ अभिनयसहित कहते है उन के लिये अजित क्या हो सकता है ?।।२९।। 'जो होगा सो होगा' इस तरह का उपेक्षाभाव परीक्षक में सम्भवित नही, वो तो सर्व प्रयत्न से भीतर में उतरेगा, और यथार्थता के अटल
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy