SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२ तत्त्वोपनिषद्_ किं तद्यन्न गम्यत इत्याह किं प्रकृतं किं प्रकरणमाश्रित्येदमुक्तम् ? किमत्र तात्पर्यम् ? प्रश्नोऽयं पूर्वापरविरोधप्रकरणासाङ्गत्यादिदोषदर्शनोद्भवः। ___तथा किमुत्तरम् ? अमुकामुकानुपपत्तौ किं समाधानम् ? तथा किमुक्तमेवं - यथास्मिन् शास्त्र उदितं किं तथैव वस्तुस्थितिः ? अथ वा किमतोऽन्यथा भवेत्? तद्विपरीतैव वस्तुस्थितिस्स्यात् ? इत्यादि यैः सदस्सु वादिप्रतिवादिपरिपूर्णसभासु चौच्चैः - तथा आग्रह के साथ उस वचन की कड़ी परीक्षा करेगा। और यदि उसे वहाँ बाधादि दोष नज़र में आये तो उन दोषों की तरफ अंगुलिनिर्देश करते हुए शिष्ट भाषा में कहेगा कि ये समज़ में नहीं आ रहा है, यह बात कुछ हज़म नहीं हुई। आशय यही है कि यह वचन युक्ति के आगे टिक नहीं सकता। यदि पुछा जाय कि क्या समज में नहीं आता ? तो वो कहता है क्या प्रकृत - प्रस्तुत किया जा रहा है ? ये तो अचानक असम्बद्ध बात आ पडी, या तो इस बात का इसी ग्रंथ के पूर्व और पश्चात भाग से विरोध आ रहा है, इस बात की तो प्रकरण से = प्रस्तुत बात के साथ कोइ संगति ही नहीं। ऐसे दोषों का वह प्रामाणिकता एवं नीडरता से उल्लेख करता है। और कहता है कि ऐसी अनुपपत्तिग्रन्थ की जटिल उलझनों का उत्तर क्याँ है ? उनका समाधान क्या है ? जिस तरह इस शास्त्र में कहा है ऐसी ही वास्तविकता है, या इससे विपरीत परिस्थिति हो सकती है ? आँखे बँधकर के स्वीकार लूँ, ऐसी मेरी वृत्ति नहीं, शास्त्रदर्शित स्थिति ही वास्तविकता है, इसमें क्या प्रमाण है ? इससे विपरीत नहीं है इसमें क्या बाधक हो सकता है ? और यदि प्रमाण नहीं है तो इसका स्वीकार कैसे किया जा सकता है ? इस प्रकार जो पुरातनप्रेमीओं से भरी सभा में अद्भुत
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy