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________________ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ असणेण अदं-सणेण दिट्ट अणालवंतेण ॥ माणेण पवासेण य पंचविहं जिकए पिम्मं ॥ ८६ ॥ ततश्च तादृक्कार्यावसरादावुदास्तेऽपीति; एवं केचिद्गुरवः सर्वसत्त्वेषु परममैत्रीपवित्रचित्ततयैव, न तु धनादिलिप्सयाजीविकादिहेतोर्वा जलधर श्व साधारणोपकारप्रवृत्तयः ॥ ७ ॥ तादृगवसरायुचितमनोनिरुचितमधुरदेशनान्निरनुशासंति हितं, प्रकाशयंति विवेकं, निर्नानशयंति मोहतिमिरपटवं प्रबोधयति प्रमादनिप्रामुजितविवेकलोचनं ॥ 6 ॥ नव्यजनं, प्रकटयंति सम्यक्त्वादिगुणान्, रुंधति उर्गतिमार्गान, निस्तारयंति चाऽपारसंसारपारावारप्रस्फुरविविधापत्परंपराज्यः ॥ ५ ॥ 6०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० नहीं मळवायी, अतिशय मळवाथी, मळवा उतां नहीं बोलावयाथी, अनिमानथी तथा परदेश प्रवासथी, एम पांच प्रकारे स्नेह घटे ने ॥६॥ माटे तेवा कार्य अवसर आदिकमां रीसाइ पण जाय ; एवी रीते केटलाक गुरुओ धनादिकनी बालचथी नहीं, अथवा आजीविका माटे पण नहीं, परंतु सर्व प्राणीप्रोपर परम मित्राथी पवित्र ययेला चित्तपणायें करीने वरसादनी पेठे साधारण उपकारनी प्रवृत्तिवाळा होय ॥ ७॥ तथा तेवा अवसर आदिकमां नचित तथा मनने रुचे एवा मधुर उपदेशोथी हित शिक्षा तेश्रो आप ने, विवेकने प्रकाशे बे, मोहरूपी अंधकारनो समूह मटा , तया प्रमादरूपी निद्राथी बीमायेलां विवेकरूपी बोचन ॥७॥ नव्यजन प्रत्ये समकीत आदिक गुणोने प्रगट करे छे, दुर्गतिना मार्गाने रोके जे; तथा अपार एवा संसाररूपा समुद्रमा जबळता एवं नाना प्रकारन। आपदााना श्रीगाथा तार पण ३ ॥ नए॥ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
SR No.023410
Book TitleUpdesh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalan Niketan
PublisherLalan Niketan
Publication Year1925
Total Pages406
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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