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________________ देशोत्कर्षश्च कियहिषजयेन श्रीकृष्णमहाराजादीनामिव ॥ २॥ श्रियो मणिसुवर्णाद्या राज्यादिकाश्च, नवनिध्यवधयोऽत्र इंघाऽहर्मिपत्वाद्याः ॥ ३॥ परत्र तीर्थकृत्पदसंबंधिन्योऽष्टमहाप्रातिहार्यादयश्च ॥४॥ जयेन युक्ता वा श्रियः प्राग्वर्णितस्वरूपाः जयश्रियः ॥ ५ ॥ वांचितानि सुखानि च श्रीशानिनवादीनामिव, उपनदणाघांगऽतिगानि चः ॥६॥ ततः पदघ्यस्य पदत्रयस्य छे, तानि ददातीति जयश्रीवांगित सुखदः,तस्मिन् ॥७॥ देशथी उत्कर्ष श्री कृष्ण महाराज आदिकोनी पेठे केटलाक शत्रुओने जीतवायी थाय डे ॥॥ लक्ष्मी अटले आ लोकमां मणिसुवर्ण आदिक, राज्यादिक, तया बेक नवनिधि पर्यंत इंद्र अहमिद्रपणा आदिक जाणवी॥३॥ तया परलोकमां तीर्थकरनी पदवी संबंधि आउ महापातिहर्यादिकनी लक्ष्मी जाणवी. ॥४॥ __ अथवा जयवझे करीने युक्त अवी जे बदमी, के जेनुं स्वरूप पूर्वे वर्णववामां आवेवं जे, ते जपत्रम। कहेवाय ॥५॥ वळी वांछित सुखो शाबिनद्रादिकोनी पेठे जाणवां, तया उपनकणयी वांगयी पण अधिक सुखो जाणवां. ॥६॥ पली बन्ने पदोनो अथवा त्रणे पदानो छ समास करवो. तेश्रोने एटने जय, सदमी अने वांछित सुखाने देनारो जे धर्म, तेने विषे तमो (नधमकरो) ॥ ७ ॥ श्री उपदेशरत्नाकरः
SR No.023410
Book TitleUpdesh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalan Niketan
PublisherLalan Niketan
Publication Year1925
Total Pages406
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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