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________________ तथा अनिष्टं मुखं पुःखनिमित्तं च, आधिव्याधिव्यसनशोकष्टवियोगाऽनिष्टयोग पुष्टग्रहदेवताद्युपजवदारिद्यादि, तत् हरति, स्वाराधकगतं परगतं उन्नयगतं चेत्यनिष्टहरण है। स्तस्मिन् ॥ ७ ॥ तत्र स्वाराधकगतं यथा सुदर्शनश्रेष्टिधम्मिविद्यापतिचंदनबालादिनां शीलतपोदानादिधर्मः ॥ ए॥ परगतं यथा तीर्थकरन ब्धिसंपन्नमहादीनां तादृक् तपः, यथा निजस्नानजलनिखिननरतिर्यक् सर्वरोगाद्युपजवापहर्तृ स्वकरस्पर्शश्रीलक्ष्मण हृदयप्रविष्टशक्तिवित्रासिविशल्यादीनां च प्रागनवाद्याचीर्णं तपः ॥ १० ॥ (वळी में धर्म केवो जे ? तोके) अनिष्ट एटले दुःख ने दुःख्नां निमित्तो, जेवांके आधि, व्याधि, || व्यसन, शोक, इष्टनो (वहालांनो) वियोग, अनिष्टनो (शत्रुओनो) संयोग, मुष्ट ग्रह तथा देवता आदिकना उपद्रवो || तया निर्धनता आदिक, तेने जे हरे , अर्थात् स्वाराधकगत दुःखने, परगत मुःखने अने नजयगत दुःखने जे हरे ने ते धर्म अनिष्टने हरनारो कहेवाय, एवा ते धर्मने विषे तमो (यत्न करो ?) ॥ ७॥ तेमां स्वाराधकगतना (एटले पोताना तना) संबंधमां सुदर्शन शेव, धम्मिविद्यापति तथा चंदनवालाआदिकानो (अनुक्रमे) शील, तप तथा दानादिक रूप धर्म जाणवो. ॥५॥ परना मुःखने हरवाना संबंधमां तीर्थंकर महाराजनो तथा लब्धिवाळा महामुनि आदिकानो तेवा प्रका-18 रनो तप जाणवो ; जेम पोताना स्नानना जलथी सर्व मनुष्य तथा तिर्यंचोना सर्व प्रकारना रोग आदिक उपद्रवने | हरनार, तथा पोताना हायना स्पर्शथी श्री लक्ष्मए ना हृदयमा पेठेत्री शक्तिने दूर करनार एवी विशव्या आदि । | कोनो पूर्व जवादिकमां करना तपनो प्रभाव जाणवो ॥१०॥ .000000000०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० श्री उपदेशरत्नाकर
SR No.023410
Book TitleUpdesh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalan Niketan
PublisherLalan Niketan
Publication Year1925
Total Pages406
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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