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॥ २३९ ॥ व्यञ्जनाददन्ते ॥ व्यजनान्ताद्धातोरन्ते अकारो भवति ॥
व्यसनात धातुनी सन्त अ मागम थाय छे. भमइ । हसइ । कुणइ । चुम्बइ । भणइ । उवसमइ । पावइ । सिञ्चइ । रुन्धइ। मुसइ। हरइ । करइ ॥ शबादीनां च प्रायः प्रयोगो नास्ति ॥
॥ २४० ॥ स्वरादनतो वा ॥ अकारान्तवर्जितात्स्वरान्तादातोरन्ते अकारागमो वा भवति ।
ગકારાન્ત શિવાયના સ્વરાન્ત ધાતુની અન્ત = આગમ વિકલ્પ થાય छे. पाइ पाइ । धाइ धाअइ । जाइ जाअइ । झाइ झाअइ । जम्भाइ जम्भाअइ । उव्वाइ उव्वाअइ । मिलाइ मिलाअइ । विक्केइ विक्केअइ। हो. ऊण होइऊण ॥ अनत इति किम् । चिइच्छइ । दुगुच्छइ ॥
॥२४१ ॥ चि-जि-श्रु-हु-स्तु-लू-पू-धूगां णो इस्वश्च ॥
च्यादीनां धातूनामन्ते णकारागमो भवति एषां स्वरस्य च इस्वो भवति ॥
चि, जि, श्रु, हु, स्तु, ल, पू, यते धूग या धातुने मन्ते ण मागम भाव छ भने धातुमाना २५२४२५ थाय छे. चि । चिणइ॥ जि । जिणह ॥ श्रु । सुणइ ॥ हु । हुणइ ॥ स्तु । थुगइ ॥ लू । लुगइ ॥ पू । पुणइ ॥ धूम् । धुणइ ॥ बहुलाधिकारात्वचिद्विकल्पः । उच्चि गइ । उच्चेइ ॥ जेऊण । जिणिऊण ॥ जयइ । जिगइ॥ सोऊण । सुणिऊण॥
॥ २४२ ॥ न वा कर्म-भावे व्यः क्यस्य च लुक् ॥