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प्रमु-महावीर
इस समय देश में धन-धान्य खूब था, कला-कौशल का भी खूब प्रचार था । किन्तु सच्चा-धर्म दुर्लभ था । लोग यज्ञ-यागादिक खूब करते और उनमें प्राणियों को मार-मारकर बलि चढ़ाते थे। धर्म के नाम पर निर्दोषप्राणियों का संहार होता था। ब्राह्मण तथा अन्य उच्च-जातियें, शूद्रों एवं अछुतों को बहुत ही नीच-दृष्टि से देखती थीं। शूद्र अथवा अछुत, अपने किसी भी नागरिक अधिकार का उपभोग न कर पाते थे । स्त्रियों का दर्जा बहुत-अधिक गिर गया था। धर्मशास्त्र, विद्वानों की भाषा संस्कृत में ही लिखे जाते थे, अतः जन-साधारण उन शास्त्रों से कोई लाभ न उठा सकते थे। अनेक सम्प्रदाय तथा अनेक धर्म उस समय चल रहे थे। प्रभु महावीर ने यह सारी स्थिति ध्यान में रखकर अपना उपदेश प्रारम्भ किया । उनके उपदेश का सार यों है:
" हिंसा से भरे हुए होम-हवन अथवा क्रियाकाण्ड से सच्चा-धर्म नहीं होता । धर्म तो केवल आत्मशुद्धि से ही होता है।
जो सद्गुणी है, वही ब्राह्मण है और जो दुराचारी है, वही शूद्र है।
धर्म का ठेका किसी मनुष्य-विशेष को नहीं है।