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प्रभु-महावीर
बड़े भाई नन्दिवर्धन ने श्री वर्द्धमान की भावना समझकर ही उन्हें आज्ञा दी थी। किन्तु उनका प्रेम अथाह था । जब, श्री वर्द्धमान चले, तब नन्दिवर्धन रोने लगे और उनके नेत्रों से टप-टप आसू गिरने लगे। किन्तु अब श्री वर्द्धमान का मन ऐसा नहीं रह गया था, कि वह जगत् के माया-जाल में फँस सके । उन्हें जो महान्-साधना करनी थी, उसी की तरफ लक्ष रखकर, वे शान्तचित्त से चलने लगे।
: १२ : यद्यपि, महात्मा तो बहुत हो चुके हैं, किन्तु वर्द्धमान से अच्छा कोई न हुआ। उन्होंने साधुपना लेते ही, बड़े कड़ेतप करना प्रारम्भ किया। किसी समय दो उपवास, किसी समय चार उपवास, कभी पन्द्रह और कभी-कभी बीस उपवास तक कर डालते थे। यहीं तक नहीं, उन्होंने छ:-छः महीने तक के लम्बे-उपवास भी कर डाले ।
श्री वर्द्धमान खूब उपवास करते और ध्यान धरते थे। और ध्यान भी कैसी जगह धरते थे ? किसी खंडहर अथवा मसान में, किसी जंगल या गुफा में, किसी मन्दिर अथवा किसी अन्य भयङ्कर-जगह में।
वहाँ बर्र काटतीं, मधुमक्खियें काटतीं और भौरे काटते।