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श्री पार्श्वनाथ ही देर में वह छाती तक आ पहुँचा। फिर तो वह बढ़तेबढ़ते गले तक और अन्त में उनकी नाक तक भर आया। किन्तु, पार्श्वनाथजी अपने ध्यान में इस तरह मग्न थे, कि उन्हें इस उपद्रव का पता भी न चला और वे अपनी समाधि से ज़रा भी न डिगे ।
धरणेन्द्र नामक नागराज ने जब यह दशा देखी, तब उसने प्रभु द्वारा अपने पर किये गये उपकारों का बदला चुकाने की इच्छा से, स्वयं वहाँ आकर, वह उपद्रव बन्द करवाया। इस समय भी, श्री पार्श्वनाथजी तो शान्त-भाव से ही खड़े थे। उनके लिये तो धरणेन्द्र तथा मेघमाली, दोनों एक-समान थे। अर्थात् , वे शत्रु तथा मित्र दोनों को समान दृष्टि से देखते थे। जो महात्मा, दोस्त और दुश्मन दोनों को सम-भाव समझते हैं, वे वास्तव में धन्य हैं।
श्री पार्श्वनाथजी को, इस घटना के थोड़े ही दिन बाद ' केवलज्ञान' अर्थात् सच्चा और पूर्ण-ज्ञान हो गया। केवलज्ञान होजाने के बाद, उन्होंने सब लोगों को पवित्र -जीवन व्यतीत करने का उपदेश दिया । आप के उपदेश से बहुत से पुरुष तथा स्त्रियों ने पवित्र-जीवन व्यतीत