________________
श्री पार्श्वनाथ यह जीवन का सच्चा-उद्देश्य नहीं है। मनुष्यजीवन का सच्चा-स्वरूप समझकर, उसे आचरण में लाना, यही उचित है।"
इन विचारों के आने पर, पार्श्वकुमार का चित्त सांसारिक-सुखभोग से अलग हो गया। ऊँची-तरह का जीवन व्यतीत करने की उनकी इच्छा बहुत बढ़ गई। ऐसी इच्छा को वैराग्य कहा जाता है।
पार्श्वकुमार, दुःखियों के आश्रयदाता थे, पतितों के उद्धारक थे और सदा यह इच्छा रखनेवाले थे, कि मैं मन, वचन अथवा काया से किसी भी जीव को दुःख न पहुँचाऊँ। उनका वैराग्य बढ़ता ही गया । वैराग्य के बाहरी चिन्ह स्वरूप, उन्होंने एक-वर्ष तक सोने की मुहरों का दान दिया। अन्त में, उन्होंने तीन उपवास किये और मातापिता का छोटा-सा सम्बन्ध छोड़कर सारे संसार के साथ प्रेमपूर्ण तथा विशाल-सम्बन्ध स्थापित किया । अर्थात् सब जीवों के कल्याण की इच्छा से वे साधु होगये। और भी बहुत से मनुष्य, उनके साथ साधु-व्रत लेकर उनका अनुकरण करने लगे। ये लोग, साधु-जीवन व्यतीत करते हुए, एक स्थान से दूसरे स्थान में भ्रमण करने लगे।
श्री पार्श्वनाथजी, घूमते-घूमते एक दिन शहर के