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श्री पार्श्वनाथ वसन्त ऋतु के आगमन से, वन की शोभा कुछ निराली ही हो उठी । सारे वृक्ष, हरे-हरे पत्तों से शोभित हो गये । फूलों का तो कोई पार ही न था। फूलों का रस पान करने के लिये, भौंरों के झुण्ड गुंजार करते हुए चारों तरफ घूम रहे थे । वृक्षों पर पक्षियों के मधुर-गायन हो रहे थे, और मीठे-पानी के झरने कल-कल करके बह रहे थे।
पाश्चकुमार, प्रभावती के साथ इस वन की शोभा देखने निकले । वे, घूमते-घूमते एक महल के सामने आये । महल की शोभा वर्णन नहीं की जा सकती । जहाँ नजर पहुँचती, वहीं कोई सुन्दर बनावट और जहाँ देखते वहीं कुछ विचित्रता दिखाई देती थी। इस महल में, पार्श्वकुमार तथा प्रभावती आराम करने को गये। महल के दीवानखाने में, चित्रों को देखते-देखते वे एक सुन्दर चित्र के सामने आये । उस चित्र में एक जगह श्री नेमिनाथ की बरात का दृश्य बना था, फिर श्री नेमिनाथजी पशुओं का चीत्कार सुनते हुए दिखाये गये थे। इसके बाद के दृश्यों में, उनका हृदय दया से भर आता, वे पशुओं को छुड़ा देते और अपना रथ वापस लौटाते, आदि बातें दिखलाई गई थीं । यह सब देखकर, पार्श्वकुमार को अपने जीवन के सम्बन्ध में विचार हुआ। वे सोचने लगे-" संसार के सुख-भोग में ही जीवन व्यतीत करना