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श्री पार्श्वनाथ
वे, प्रभावती को लेकर पार्श्वकुमार की छावनी में आये और हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना की, कि-"आपने यवनराजा के भय से हमें बचाकर, हम पर बड़ा उपकार किया है। किन्तु, अब इस प्रभावती के साथ अपना विवाह करके हम पर दूना उपकार कीजिये। यह आपको ही चाहती है और आप ही को सदा याद किया करती है !"
यह सुनकर पार्श्वकुमार बोले, कि-" हे राजा ! मैं तो केवल शत्रु से तुम्हारी रक्षा करने के लिये यहाँ आया हूँ, विवाह करने के लिये नहीं । मेरा काम पूरा होगया, इसलिये अब मैं वापस चला जाऊँगा ।"
पार्थकुमार का यह उत्तर सुनकर, प्रभावती के दुःख का पार न रहा। वे, बड़ी चिन्ता में पड़ गई और सोचने लगीं, कि-" अब मेरा क्या होगा ?"। राजा प्रसेनजित् भी विचार में पड़ गये और सोचते-सोचते उन्होंने अपने मन में यह निश्चय किया, कि-" पार्यकुमार स्वयं तो यह बात नहीं मानेंगे, किन्तु राजा अश्वसेन के कहने से वे अवश्य इस बात को स्वीकार कर लेंगे । अतः राजा अश्वसेन से मिलने का बहाना बनाकर मुझे पार्श्वकुमार के साथ ही काशी जाना चाहिये ।"