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श्री पार्श्वनाथ तो चुपचाप वापस लौट जायँ"। यवनराजा को यह उत्तर देते सुन, उनका, एक बूढ़ा-मंत्री बोला-" महाराज ! चाहे जो कीजिये, किन्तु लड़ाई में हमलोग पार्श्वकुमार का मुकाबला हर्गिज़ नहीं कर सकते । फिर, अपनी लड़ाई भी केवल अभिमान की है, सच्ची नहीं । तब क्यों अकारण ही मनुष्यों का रक्तपात होने दिया जाय ? मेरी सम्मति में, पाचकुमार का यह सन्देश मान लेना और उनकी शरण जाना ही अच्छा है। "
यवन राजा को, विचार करने पर यह बात सच्ची जान पड़ो। वह, पार्श्वकुमार की शरण आया और हाथ जोड़कर कहने लगा, कि-"मेरा अपराध क्षमा कीजिये"।
पार्श्वकुमार बोले-" हे राजा ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम, मुझसे डरो मत और अपना राज्य सुखपूर्वक भोगो। किन्तु, अब फिर कभी ऐसी गल्ती न करना।"
कुशस्थल नगर के चारों तरफ से फौज का घेरा उठाकर राजा यवन अपने घर चला गया। यह देखकर, राजा प्रसेनजित् के हर्ष की सीमा न रही। उन्हें, दो खुशियें एक ही साथ हुई। एक तो शत्रु का भय दूर हुआ और दूसरे पार्श्वकुमार-जिनकी उन्हें आवश्यकता थी-घर बैठे आगये।