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________________ १५ मित्ती मे सव्वभूएस, वेरं मज्झं न केणइ ॥ अर्थात् - मैं, संसार के सब जीवों से क्षमा माँगता हूँ, सब जीव मुझे क्षमा करें । मेरी सब प्राणियों के साथ मित्रता है, किसी से भी मेरा वैर नहीं । इतने ही में, सिंहनी ने छलाँग मारी और सुकोशल मुनि के शरीर पर गिरी । वह, अपने भयङ्कर - पंजों तथा विकराल - दाँतों से उनका शरीर फाड़ने लगी । किन्तु इस समय भी राजर्षि सुकोशल शान्त - दशा में रहकर, अपने हृदय को पवित्र बना रहे थे | थोड़े ही समय में वह पवित्रता अन्तिमसीमा तक पहुँच गई और उन्हें केवलज्ञान होगया । 1 सिंहनी ने उनका शरीर खा डाला और वे निर्वाणपद को प्राप्त होगये । राजर्षि कीर्तिधर बच गये, अतः उन्होंने कठिन तपस्या करके, उसके प्रभाव से मोक्ष प्राप्त किया । धन्य है आदरणीय - वीर सुकोशल को ! ६ -- खन्धक मुनि के पाँच सौ शिष्य बीसवें तीर्थङ्कर प्रभु मुनिसुव्रत से राजपुत्र खन्धक ने पाँच - सौ मनुष्यों सहित दीक्षा ली और फिर धर्म का खूब अध्ययन करने लगे । थोड़े ही समय में वे बड़े ज्ञानी होगये, अतः भगवान ने उन्हें पाँच सौ मुनियों के आचार्य बना दिये । एक बार उन्होंने अपने बहनोई को उपदेश देने के लिये, कुंभारकट नगर जाने को आज्ञा, भगवान से माँगी ।
SR No.023378
Book TitleHindi Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Bhajamishankar Dikshit
PublisherJyoti Karayalay
Publication Year1932
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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