SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 387
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५-सुकोशल मुनि राजर्षि कीर्तिधर तथा उनके पुत्र राजर्षि सुकोशल, दोनों एक भयंकर-वन में होकर जारहे थे। वहाँ, अचानक एक सिंहनी दिखाई दी । भला ऐसा कौन-सा मनुष्य होगा, जो इसके सामने से भागकर अपने प्राण बचाने का प्रयत्न न करता ? किन्तु इन राजर्षियों ने तो भागने का प्रयत्न ही न किया और उलटे आपस में यों विचार करने लगेः राजर्षि कीर्तिधर बोले-" सुकोशल ! तुम पीछे रहो, पहले मुझे संकट सहने दो"। राजर्षि सुकोशल ने उत्तर दिया-"क्षमाश्रमण ! आप यह क्या कह रहे हैं? मैं तो संकट को कभी गिनता ही नहीं। क्या लड़ने के लिये निकला हुआ योद्धा कभी पीछे को पैर रख सकता है ? अतः कृपा करके मुझे ही यह उपसर्ग सहन करने का मौका दीजिये।" __यों कह, सुकोशल मुनि आगे आकर खड़े हो गये और इष्टदेव का ध्यान करके अपने हृदय में विचारने लगे, कि - "हे जीव ! इस शरीर ही के मोह के कारण तू अनन्त-काल तक संसार में भ्रमण करता रहा है, अतः अब तो इसका मोह छोड़ दे और सब जीवों को समान गिनकर उनसे क्षमा माँग "। फिर वे मन ही मन में बोले: खामेमि सव्व जीवे, सव्वे जीवा खमन्तु मे।
SR No.023378
Book TitleHindi Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Bhajamishankar Dikshit
PublisherJyoti Karayalay
Publication Year1932
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy