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इसी समय, गजसुकुमाल का ससुर सोमल ब्राह्मण, वहाँ होकर निकला। उसने, गजसुकुमाल को इस दशा में देखा,अतः वह खूब नाराज़ हुआ और दाँत पीसकर बोला, कि-" अरे ? तूने तो मेरी लड़की की ज़िन्दगी ही खराब कर डाली ! यदि तुझे उससे विवाह हो न करना था, तो फिर उसके साथ अपनी सगाई क्यों की?" । यों कहते-कहते, उसका क्रोध बहुत बढ़ गया। वह, इस विचार से, कि-" मैं अब इस गजमुकुमाल को कौनसा दण्ड दूँ" क्रोध में पागल-सा हो उठा। जब, उसके क्रोध की कोई सीमा ही न रही, तब उसने पास ही जलते हुए अङ्गारों को मिट्टी के घड़े के एक ठीकरे में भरकर, उस ठीकरे को गजसुकुमाल के सिरपर रख दिया।
गजसुकुमाल का हृदय, क्षमा का सरोवर था। उनका शरीर चाहे जले, किन्नु मन ऐसा था, कि उस पर ज़रा भी
आँच नहीं लग सकती थी । इस कष्ट से दुःखी होने के बदले वे उलटे यह विचार करने लगे, कि-" कोई ससुर तो बीस ही पचीस रुपये की पगडी बँधवाते होंगे, किन्तु इस ससुर ने तो ऐसी पगड़ी बँधवाई है, जिसके द्वारा मोक्ष की भी प्राप्ति हो सकती है। ऐ जीव ? शान्तिपूर्वक इस प्रसंग को सहन कर ले, ऐसे मौके बार-बार नहीं आया करते ।" यों विचार करते-करते, उनके हृदय में क्षमा का प्रवाह प्रवल हो उठा, समता की भावना और भी अधिक बढ़ने लगी और इसी दशा में उन्हें केवलज्ञान होगया।