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मैत्रीभाव जगतमें मेरा सब जीवोंसे नित्य रहे, दीन-दुखी जीवों पर मेरे उरसे करुणा-स्रोत वहे । दुर्जन-क्रूर-कुमार्गरतों पर क्षोभ नहीं मुझको आवे, साम्यभाव रक्खू मैं उन पर, ऐसी परिणति हो जावे॥
गुणीजनोंको देख हृदयमें मेरे प्रेम उमड आवे, बने जहाँतक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे । होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं, द्रोह न मेरे उर आवे, गुण-ग्रहणका भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे॥
(७) कोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे, लाखों वर्षों तक जीऊँ या मृत्यु आज ही आ जावे । अथवा कोई कैसा ही भय या लालच देने आवे, तो भी न्यायमार्गसे मेरा कभी न पद डिगने पावे ॥
(८) होकर सुखमें मग्न न फूले, दुखमें कभी न घबरावे, पर्वत-नदी श्मशान-भयानक अटवीसे नहिं भय खावे । रहे अडोल-अकंप निरन्तर, यह मन, दृढतर बन जावे, इष्टवियोग-अनिष्टयोगमें सहनशीलता दिखलावे ॥
सुखी रहें सब जीव जगतके, कोई कभी न घबरावे, वैर-पाप-अभिमान छोड जग नित्य नये मंगल गावे। घर घर चर्चा रहे धर्मकी, दुष्कृत दुष्कर हो जावें, ज्ञान-चरित उन्नत कर अपना मनुज जन्मफल सब पावें॥