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________________ मेरी भावना। [ राष्ट्रीय नित्यपाठ ] (१) जिसने रागद्वेषकामादिक जीते, सब जग जान लिया, सब जीवोंको मोक्षमार्गका निस्पृह हो उपदेश दिया । बुद्ध, वीर, जिन, हरि, हर, ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो, भक्ति भावसे प्रेरित हो यह चित्त उसीमें लीन रहो। (२). विषयोंकी आशा नहिं जिनके, साम्य-भाव धन रखते हैं, निज-परके हित-साधनमें जो निशदिन तत्पर रहते हैं। स्वार्थत्यागकी कठिन तपस्या विना खेद जो करते हैं, ऐसे ज्ञानी साधु जगतके दुखसमूहको हरते हैं । (३) रहे सदा सत्संग उन्हींका, ध्यान उन्हींका नित्य रहे, उन ही जैसी चर्या में यह चित्त सदा अनुरक्त रहे । नहीं सताऊँ किसी जीवको, झूठ कभी नहि कहा करूँ, परधन- वनिता पर न लुभाऊँ, संतोषामृत पिया करूं। (४) अहंकारका भाव न रक्खू, नहीं किसी पर क्रोध करूँ, देख दूसरोंकी बढ़तीको कभी न ईर्षा-भाव धरूँ। रहे भावना ऐसी मेरी, सरल सत्य-व्यवहार करूँ, बने जहाँतक इस जीवनमें औरोंका उपकार करूँ ॥ १ स्त्रिया 'वनिता' की जगह ‘भर्ता' पढ़े।
SR No.023378
Book TitleHindi Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Bhajamishankar Dikshit
PublisherJyoti Karayalay
Publication Year1932
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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