________________
वामाक्षियों के कुच-कटाक्षों पर सदा मरता रहा, उनके विलासों के हृदयमें ध्यान को करता रहा ॥१३॥ लच कर चपलहग-युवतियों के सुख मनोहर रसमई, जो मन-पटलपर राग भावों की मलिनता बस गई । वह शास्त्रनिधि के शुद्ध जल से भी न क्यों धोई गई ? बतलाइए यह आप ही मम बुद्धि तो खोई गोई ॥१४॥ मुझमें न अपने अंग के सौन्दर्य का आभास है, मुझमें न गुणगण है विमल, न कलाकलाप-विलास है । प्रभुता न मुझमें रुवप्न को भी चमकती है, देखिए, तो भी भरा हूँ गर्व से मैं मूढ़ हो किसके लिए ॥१५॥ हा नित्य घटती आयु है पर पाप-मति घटती नहीं, आई बुढ़ौती पर विषय से कामना हटती नहीं । मैं यत्न करता हूँ दवा में, धर्म में करता नहीं, दुर्मोह-महिमा से प्रसित हूँ नाथ ! बच सकता नहीं ॥१६॥ अघ, पुण्य को, भव, आत्मा को मैंने कभी माना नहीं, हा आप आगे हैं खड़े दिननाथ से यद्यपि यहीं । तो भी खलो के वाक्य को मैंने सुना कानों वृथा, धिक्कार मुझको है, गया मम जन्म ही मानों वृथा ॥१७॥ सत्पात्र-पूजन देव-पूजन कुछ नहीं मैंने किया, मुनिधर्म श्रावकधर्मका भी नहिं सविधि पालन किया । नर-जन्म पाकर भी वृथा ही मैं उसे खोता रहा, मानो अकेला घोर वन में व्यर्थ ही रोता रहा ॥१८॥ प्रत्यक्ष सुखकर जैनमत में प्रीति मेरी थी नहीं, जिननाथ ! मेरी देखिये है मूढतम् भारी यही । हा ! कामधुक कल्पद्रुमादिकके यहाँ रहते हुए, हमने गँवाया जन्म को धिक्कार दुःख सहते हुए ॥१९॥ मैंने न रोका रोग-दुख संभोग-सुख देखा किया,