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________________ (१४) मानों जिनेश्वर ! वह भवोंकी पूर्णता के अर्थ है ॥६॥ प्रभु ! आपने निज मुख सुधाका दान यद्यपि दे दिया, यह ठीक है, पर चित्तने उसका न कुछ भी फल लिया । आनन्द-रस में डूबकर सद्धत वह होता नहीं, है वज्र सा मेरा हृदय, कारण बड़ा बस है यही ॥७॥ रत्नत्रयी दुष्प्राप्य है प्रभु से उसे मैंने लिया, बहुकाल तक बहु बार जब जगता भ्रमण मैंने किया । हा खो गया वह भी विवश में नींद आलस के रहा, अब बोलिए उसके लिए रोउँ प्रभो ! किसीके यहाँ ? ॥८॥ संसार ठगने के लिए वैराग्य को धारण किया, जगको रिझाने के लिए उपदेश धमों का दिया । झगड़ा मचाने के लिए मम जीभ पर विद्या बसी, निर्लज्ज हो कितनी उडाऊँ हे प्रभो ! अपनी हँसी ॥ ॥९॥ परदोष को कह कर सदा मेरा वदन दूषित हुआ, दिख कर पराई नारियों को हा नयन दूषित हुआ । मन भी, मलिन है सोच कर पर की बुराई हे प्रभो, किस भाँति होगी लोक में भेरी भलाई हे प्रभो ॥१०॥ मैंने बढ़ाई निज विवशता हो अवस्था के वशी, भक्षक रतीश्वर से हुई उत्पन्न जो दुख-राक्षसी । हा ! आपके सम्मुख उसे अतिलाज से प्रकटित किया, सर्वज्ञ ! हो सब जानते स्वयेमव संसृतिकी क्रिया ॥११॥ अन्यान्य मन्त्रों से परम परमेष्ठि-मंत्र हटा दिया, सच्छास्त्रवाक्यों को कुशास्त्रों से दबा मैंने दिया । बिधि-उदयको करने वृथा, मैंने कुदेवाश्रय लिया। हे नाथ यों भ्रमवश अहित मैंने नहीं क्या क्या किया ॥१२॥ हा तज दिया मैंने प्रभो ! प्रत्यक्ष पाकर आपको, अज्ञान-वश मैंने किया फिर देखिए किस पाप को ।
SR No.023378
Book TitleHindi Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Bhajamishankar Dikshit
PublisherJyoti Karayalay
Publication Year1932
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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