________________
(१६) मनमें न माना मृत्यु-भय धन-काम ही लेखा किया। हा ! मैं अधम युवतीजनों के ध्यान नित करता रहा, पर नरक-कारागार से मनमें न मैं डरता रहा ॥२०॥ सद्वृत्ति से मनमें न मैंने साधुता हा साधिता, उपकार कर के कीर्ति भी मैंने नहीं कुछ अर्जिता । शुभ तीर्थ के उद्घार आदिक कार्य कर पाये नहीं, नर-जन्म पारस-तुल्य निज मैंने गँवाया ब्यर्थ ही ॥२१॥ शास्त्रोक्त-विधि वैराग्य भी करना मुझे आता नहीं. खल-वाक्य भी गतक्रोध हो सहना मुझे आता नहीं । अध्यात्म-विद्या है न मुझमें है न कोई सत्कला, . फिर देव ! कैसे यह भवोदधि पार होवेगा भला ? ॥२२॥ सत्कर्म पहले जन्ममें मैंने किया कोई नहीं, आशा नहीं जन्मान्य में उसको करूँगा मैं कहीं । इस भाँति:का यदि हूँ जिनेश्वर ! क्यों न मुझको कष्ट हों ? संसार में फिर जन्म तीनों क्यों न मेरे नष्ट हों ? ॥२३॥ हे पूज्य ! अपने चरित को बहुभाँति गाऊ क्या वृथा, कुछ भी नहीं तुमसे छिपी है पापमय मेरी कथा । क्योंकि त्रिजग के रुप हो तुम, ईश हो, सर्वज्ञ हो, पथ के प्रदर्शक हो, तुम्हीं मम चित्तके मर्मज्ञ हो ॥२४॥ दीनोद्धारक धीर आप सा अन्य नहीं है, कृपा-पात्र भी नाथ ! न मुझसा अपर कहीं है। तो भी माँगू नहीं धान्य धन कभी भूल कर, अर्हन् ! केवल बोधिरत्न होवे मंगलकर
॥२५॥ श्रीरत्नाकर गुणगान यह दुरित दुःख सबके हरे । बस एक यही है प्रार्थना मंगलमय जग को करे ॥