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विमलशाह किन्तु पुजारियों ने जगह देने से साफ इनकार कर दिया । विमलशाह ने उन्हें खूब समझाया। पुजारियों ने कहा, कि -"यदि आपको यहाँ पर जगह की आवश्यकता ही हो, तो जितनी जमीन चाहो, उस पर सोने के सिक्के बिछवाकर, वे हमें दे दो और जमीन आप ले लो"विमलशाह ने, यह बात स्वीकार कर ली और सोने के सिक बिछाकर जमीन खरीदी। जमीन प्राप्त कर चुकने पर, उन्होंने सारे देश में से छाँटछाँटकर कारीगर बुलवाये और संगमरमर के पहाड़ में से संगमरमर-पत्थर खुदवा-खुदवा, हाथियों पर लाद-लादकर आबू-पहाड़ पर लाने लगे। कहा जाता है, कि यह पत्थर लगभग चाँदी के बराबर कीमती पड़ने लगा। विमलशाह के हृदय में उत्तमोत्तम-मन्दिर बनवाने की भावना थी, अतः उन्होंने सिलावटलोगों से कहा, कि-" तुम लोग, अपनी सारी कला इस काम में दिखलाना । पत्थर में नक्काशी खोदते हुए, जितना चूरा गिरेगा, मैं उतनी ही चाँदी तुम्हें दूंगा।" दो-हजार कारीगरों ने, चौदह-वर्ष तक काम किया। अठारहकरोड़ और तीस-लाख रुपये के खर्च से, एक भव्य-जिनमन्दिर तयार हुआ, जिस में श्री ऋषभदेव-भगबान की मूर्ति स्थापित की गई।
यह मन्दिर, आज भी आबू-पहाड़ पर शोभा दे रहा है । संसार में इसकी कारीगरी की कोई जोड़ नहीं है। प्रिय