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किराना बेंचने लगे और श्रीपाल आस-पास का देश देखने लगे। वहाँ पास ही एक पहाड था। उस पहाड़ पर एक मन्दिर था, जिसके किंवाड़ इस तरह बन्द होगये थे, कि वे किसी के खोले खुलते ही न थे । वहाँ के राजा ने यह निश्चय कर रखा था, कि जिससे ये किंवाड़ खुलेंगे, उसको मैं अपनी कन्या विवाह दूँगा । श्रीपाल से वे किंवाड़ खुल गये, अतः राजा ने अपनी कन्या उन्हें विवाह दी।
धवलसेठ ने अपने तथा श्रीपाल के किराने को बेंचा और वहाँ से नया माल खरीदकर जहाजों में भर लिया। अब तो जहाज पीछे लौट पड़े।
श्रीपाल अपनी दोनों स्त्रियों के साथ, जहाज के सब से ऊँचे भाग की खिड़की में बैठकर समुद्र की सैर देखते और आनन्द करते हुए जा रहे थे।
इधर, धवलसेठ विचारने लगे, कि-" यह श्रीपाल खाली-हाथ आया था, उसके आज इतनी बड़ी सम्पत्ति होगई है। यही नहीं, दो-दो सुन्दर-स्त्रियों से उसने अपना विवाह भी कर लिया । अहा ! वे स्त्रियें कैसी सुन्दरी हैं ! यदि मैं श्रापाल को समुद्र में फेंक दूं, तो ये दोनों स्त्रिये और यह सारा धन मुझे ही प्राप्त हो जाय !"
यों सोचकर, धवलसेठ ने श्रीपाल के साथ, बड़े