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रानी को जब इस आधी - रात के समय वह चारों तरफ अजीतसेन के सिपाही फैले रानी ने सीधा जंगल का मार्ग ग्रहण किया ।
चालाकी का पता लगा, तो राजकुमार को लेकर भागी । हुए थे, थे, अतः
कैसा भयावना है वह जंगल ? उसमें मानों झाड़ पर झाड़ लगे हों, ऐसी घनी झाड़ी, काँटाँ और झंखाड़ का पार ही नहीं; भीतर कहीं चीते की आवाज सुनाई देती है, तो कहीं सिंह दहाड़ रहा है । किन्तु आखिर करे क्या ? अपना प्राण बचाने को रानी ऐसे जंगल में होकर भी भागती जा रही थी । बेचारी ने घर से बाहर कभी पैर भी न रखा था, किन्तु आज भयङ्कर - वन में अकेली ही घूमना पड़ रहा है । उसके पैरों म से खून बहने लगा और सारे कपड़े फट गये ?
दूसरे दिन का सबेरा हुआ । इस समय जंगल भी पूरा होने आया था । यहाँ पहुँचकर श्रीपाल ने कहा, कि - " माँ ! भूख लगी है, अतः दूध, शकर और चाँवल मुझे दो” । कमलप्रभा बिलख-बिलखकर रोता हुई बोली, कि - " बेटा ! दूध, शकर, तथा चाँवल के और हमारे बीच में हजारों - कोस की दूरी पड़ गई। अब तो जुआर पड़ बाजरी की राबड़ी ही मिल जाय, तो उसे भी परमात्मा की दया समझनी चाहिये। ”