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अमर कुमार
राजा खड़े होते ही अमरकुमार से कहने लगे, कि - "माँगो ! माँगो ! तुम्हें जितना धन चाहिये, उतना मैं दूंगा " ।
अमरकुमार ने उत्तर दिया, कि - " मुझे धन की आवश्यकता नहीं है, यह सारा अनर्थ धन का ही परिणाम है | मैं तो अब साधु होकर अपने आत्मा का कल्याण करूँगा । " यों कहकर, वे नगर से बाहर थोड़ी दूरी पर जंगल में चले गये और ध्यान लगाकर वहीं खड़े हो गये ।
इधर, ऋषभदत्त और उसकी स्त्री भद्रा, दोनों गड्ढे खोद - खोदकर उनमें धन गाड़ रहे हैं और आपस में विचार करते हैं, कि अब ऐसा करेंगे, वैसा करेंगे – आदि ।
इतने ही में किसीने आकर कहा, कि - " अमरकुमार तो साधु होकर वन में चला गया" । यह सुनते ही, माता पिता के होश उड़ गये । वे, चिन्ता करने लगे, कि - " अब क्या होगा ? क्या राजा यह धन पीछा ले लेंगे ?”
शाम हुई, रात हुई, सोने का समय भी हो गया, किन्तु ब्राह्मणी को नींद न आई। उसके हृदय में, अमरकुमारके प्रति क्रोध की ज्वाला जल रही थी । वह अपने मन ही मन में बड़बड़ाने लगी, कि - " इस शैतान - लड़के का क्या करना चाहिये ? हम लोग, सारी दुनिया में फजीहत हुए और अब धन भी न रहेगा ! यह कौन जानता है, कि अब क्या होगा ? अतः इस लड़के को तो खतम ही कर देना चाहिये । "