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जम्बूस्वामी
विरक्त होता गया । उपदेश पूरा होते-होते, जम्बूकुमार का हृदय वैराग्य से भर गया ।
वे हाथ जोड़कर बोले, कि - " प्रभो ! मुझे दीक्षा लेनी है, अतः जब तक मैं माता-पिता से आज्ञा लेकर आऊँ, तब तक आप यहीं विराजने की कृपा करें । सुधर्मास्वामी ने यह स्वीकार कर लिया ।
रथ में बैठकर जम्बूकुमार पीछे लौटे । नगर के दरवाजे पर पहुँचकर देखते हैं, कि सेना की भीड़ दरवाजे से निकल रही है । हाथी, घोड़े और पैदल की कोई सीमा ही न थी । ऐसी भीड़ को चीरकर भीतर कैसे जाया जासकता ? और जब तक सेना पार न होजाय, तब तक वहाँ रुक भी कैसे सकते थे ? अतः वे दूसरे दरवाजे की तरफ चले ।
जब वे दूसरे दरवाजे के नज़दीक पहुंचे, तब एक ज़बरदस्त लोहे का गोला धम - से उनके पास आ गिरा । यह गोला उन सिपाहियों का चलाया हुआ था, जो लड़ाई की शिक्षा ले रहे थे । यह देखकर जम्बूकुमार विचारने लगे, कि - " अहो ! यह लोहे का गोला यदि मेरे सिर पर गिरता, तो मेरी क्या दशा होती ? मैं निश्चय ही ऐसे अपवित्र - जीवन की दशा में मर जाता । अतः चलूँ और अभी गुरुजी के समीप जाकर प्रतिज्ञा ले आऊँ | "
जम्बूकुमार सुधर्मास्वामी के पास आये और हाथ जोड़कर