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________________ १४ तारीफ यह है, कि यह सब कुछ करने पर भी मुझे दान नहीं मिल रहा है ! सच है, इस मोह में फँसकर, मैंने अपना अमूल्यसमय फिजूल नष्ट किया । अब तो मैं भी इन मुनिराज की तरह साधु होकर इनके जीवन का आनन्द अनुभव करूँ ।" ऐसे विचार करते - करते, इलाची के मन की पविता एक दम बढ़ गई और उन्हें वहीं जगत का सच्चा ज्ञान अर्थात ' केवल ज्ञान ' होगया । इधर नटिनी भी विचारने लगी कि - " ऐसा स्वरूप आग में पड़े, जिस पर मोहित होकर इलाची ने घर-बार छोड़ा, और इतने दुःख सहन किये। फिर इस राजा को भी उल्टी - बुद्धि सूझी है कि कुछ बोलता ही नहीं, न पुरस्कार ही देता हैं । अहो ! मेरे इस जीव ने संसार में उत्पन्न होकर कौन-सा अच्छा काम किया ? अब कब तक ऐसा जीवन बिताना चाहिये ? चलो, अब तो मन, वचन और काया को जीतकर मैं अपने आत्मा का कल्याण करूँ।" ऐसे विचार करते ही करते, उस नटिनी को भी केवलज्ञान हो गया । राजा-रानी ने इन दोनों के जीवन में एकाएक भारी - परिवर्तन देखा, अतः उन्हें भी अपने-अपने जीवन
SR No.023378
Book TitleHindi Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Bhajamishankar Dikshit
PublisherJyoti Karayalay
Publication Year1932
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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