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धनदत्त सेठ ने पूछा-" इलाची ! क्या बात है ? आज तू इतना अधिक उदास क्यों है ?"
इलाची ने सच्चे-दिल से कहा-"पिताजी ! गाँव में नटलोग अपना खेल करने आये हैं। उनके साथ एक जवान कन्या ऐसी है, जिसके रूप का वर्णन नहीं किया जा सकता । आप उसी के साथ मेरा विवाह करवा दीजिये।"
धनदत्त सेठ ने कहा-"पागल ! तुझे यह बुराचस्का कहाँ से लग गया ? क्या नटिनी को कभी अपने घर में रखा जा सकता है ? कहाँ अपनी जाति और कहाँ नट की जाति ! अपनी जाति में बहुत-सी कन्याएँ हैं, उनमें से तू जिसे चाहे, उसी के साथ तेरा विवाह कर दूँ।"
पिता के ऐसे विचार सुनकर, इलाची कुछ भी न बोला।
शाम को कुछ खाया, कुछ न खाया और उठ गया। रात्रि के समय नटों को चुपके-से बुलवाया और उनसे कहा कि-" तुम जितना चाहो, उतना धन ले लो, किन्तु तुम्हारी कन्या मुझे विवाह दो"।
नटों ने कहा-" अन्नदाताजी ! हमलोग अपनी कन्या बेंचने को नहीं लाये हैं। धन तो आज है और कल