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हो देखकर मुग्ध होती थी और न नौकर-चाकरों की सेवा देखकर ही । उसके मुंह से सदैव वीर ! वीर ! वीर! की ध्वनि निकलती रहती थी।
उसे वीर के आदर्श-जीवन का रंग लगा था। किन्तु अभीतक श्री वीर को केवलज्ञान नहीं हुआ था, अतः वे न तो किसी को उपदेश ही देते थे और न किसी को अपना शिष्य ही बनाते । चन्दनबाला उनके केवल ज्ञान का मार्ग देखती हुइ पवित्र-जीवन व्यतीत करने लगी।
थोड़े दिनों के बाद, प्रभु-महावीर को केवलज्ञान हो गया, अतः चन्दनबाला को इच्छा पूरी हुइ । उसने प्रभु-महावीर से दीक्षा ले ली।
यही भगवान महावीर की सर्व-प्रथम और मुख्य साध्वी थीं।
उन्होंने बड़े कड़े-कड़े तप किये और समय का सुचारु रूप से पालन किया । इस तरह उन्होंने अपने मन, वचन और काया को पूर्ण-पवित्र बना लिया ।
अनेक राज-रानियें तथा अन्यान्य स्त्रिये उनकी शिष्या बनीं। छत्तीस-हजार साध्वियों में वे प्रधानआर्या बनाई गई।