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शान्त हो जा । बेटा ? तू बाहर चल, मुझसे तेरी यह दशा नहीं देखी जाती। तुझे तीन दिन के तो उपवास ही हो गये ? हाय, मुझे ऐसी दुष्टा-स्त्री कहां से मिल गई ?" । यों कह कर सेठजी रसोईघरमें भोजन ढूंढने लगे। किन्तु भाग्यवश वहाँ खानेका सामान कुछ भी न मिला। केवल एक सूप के कोने में थोड़ी-सी उर्द की घूघरी पड़ी थी। सेठ ने वह रूप चन्दनबाला को दिया और कहा" बेटा ? मैं तेरी बेड़ी काटने के लिये लुहार को बुलालाऊँ, तब तक तू इस घूघरी का भोजन कर ले"। यों कहकर सेठ बाहर चले गये। . चन्दनबाला देहरी पर बैठ गई। उसका एक पैर भीतर की तरफ था और दूसरा बाहर । यों बैठकर वह विचारने लगी-" अहो ! मनुष्य-जीवन के कितने रङ्ग होते है ! जो मैं एक दिन राजकन्या थी, उसकी आज यह दशा है ! तीन दिन के अन्त में, आज ये उर्द के उबले हुए दाने खामे को मिले हैं ! किन्तु विना अतिथि को दिये इनका भी खाना ठीक नहीं है । यदि इस समय कोई अतिथि आजायँ तो बहुत अच्छा हो । इस भोजन में से थोडा-सा उन्हें देकर फिर मैं खाऊं।"
आज पांच-महीने और पच्चीस-दिन होगये,