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किन्तु धारिणी और क्सुमती का क्या हुथा ?
वे दोनों नगर से बाहर निकल गई। किन्तु इतने ही में शतानिक राजा के एक ऊंट-सवार ने उन्हे देख लिया । उसने इन दोनों अत्यन्त-सुन्दरी माँ-बेटी को देखकर विचार किया कि चम्पानगरी में लेने के योग्य वस्तुएँ तो ये हैं । यह सोचकर उसने इन दोनों को पकडा और बांधकर अपनी ऊंटनी पर बिठा लिया।
ऊंटनी तेजी से चलने लगी।
उंटनी सपाटे से रास्ता काटने लगी। वह न तो नदी-नालों को गिनती, और न काँटे-भाटे की ही परवा करती थी । पवन-वेग से दौड़ती हुई, वह एक घोरजंगल में आई । उस वन के वृक्ष और उसमें के रास्ते आदि सभी भयावने मालूम होते थे । मनुष्य की तो वहाँ सूरत भी न दिखाई देती थी। उस वन में पशु-पक्षी इधर-उधर घूमते और आनन्द करते ।
यहाँ पहुँचने पर धारिणी ने उस सवार से पूछा" तुम हम लोगों को क्या करोगे?"।
सवार ने उत्तर दिया-" अरे बाइ ! तू किसी प्रकार की चिन्ता मत कर । मैं तुझे अच्छा-अच्छा