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इस तरह तयार होकर सब योद्धा नगर के कोट पर चढ़ गये और वहांसे तीर मारने लगे । सनसनाहट करते हुए बाणों की वर्षा - सी होने लगी ।
बाण लगते ही, मनुष्य मर जाते । किन्तु सेना बहुत बड़ी थी, उसमें से यदि दो-चार मर ही गये तो क्या हो सकता था ? वह तो टिडी - दल की भाँति बढ़ती हुई चली ही आरही थी ।
थोड़ी ही देर में सेना कोट के समीप आगई । कोट के नीचे खाई थी, जिसमें पानी भरा था । किन्तु शत्रुसेना के पास तो लकडी के पुल और बड़ी-बड़ी सीढ़ियें थीं, जिनके द्वारा, उन्होंने बाणोंकी वर्षामें भी खाई पर पुल बना डाले । इन पुलों के सहारे उन्होंने अपनी बड़ी-बड़ी सीढ़िये कोट के किनारे-किनारे खड़ी करदीं ।
बाणों की झडी लग रही थी, जिससे खूब आदमी मरते थे । किन्तु लडने में वीर योद्धा लोग उन सीढ़ियों पर चढ़ते ही जाते थे, ज़रा भी न हिचकिचाते ।
कोट के कँगूरों पर पहुँचते ही, भालों की मार शुरू हुई। मनुष्य टप -टप नीचे गिरने लगे । किन्तु फिर भी और मनुष्य चढ़ते ही जाते थे, डरते नहीं ।