SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९ अब तक उन्होंने तुझ पर अपार प्रेम रखा और राज्य भी तुझे ही देने की उनकी इच्छा थी । " यह सुनकर कोणिक के हृदय से वैर भाव दर होगया। उसे अपनी भारी-भूळ मालूम होगई । तत्क्षण उसने अपने पिता को कैदखाने से मुक्त करने और उनसे क्षमा माँगने का निश्चय किया । लुहार को बुलाने में देर होगी, ऐसा सोचकर वह स्वयं हाथ में लोहे के औजार लेकर जेल की तरफ दौड़ा । कोणिक को इस तरह दौड़ा आता देख चौकीदारों ने श्रेणिक को खबर दी, कि - " कोणिक अपने हाथ में लोहे के औजार लेकर दौड़े आ रहे हैं, अतः आज अवश्य ही आप की मौत होगी 1 99 श्रेणिक ने विचारा, कि - " कोणिक अवश्य मुझे दुर्दशापूर्वक मारेगा, अतः यदि मैं स्वयं ही अपने आप सर जाऊं, तो अच्छा है " । यों सोच, उन्होंने अपने पास छिपाकर रखा हुआ हलाहल विष खालिया । तत्क्षण उनकी मृत्यु होगईं । कोणिक जब वहाँ आकर देखता है, तो पिता की लाश पड़ी नज़र आई । वह विचारने लगा, कि - " अरे रे ! यह क्या ? पिताजी से अन्त - समय में मुलाकात भी न हुई ! जब मुझे अपनी भूल मालूम हुई, तब तक पिताजी चल दिये ! ओफ ! मैं कैसा महादुष्ट हूँ, जिसके कारण
SR No.023378
Book TitleHindi Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Bhajamishankar Dikshit
PublisherJyoti Karayalay
Publication Year1932
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy