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बड़ा कडा-पहरा लगा दिया और अपने सिपाहियों को आज्ञा दी, कि-"खबरदार ! कोई भी मनुष्य श्रेणिक के पास न जाने पावे"। चेलणा ने कोणिक के जन्म के समय जो बात सोची थी, वह बिलकुल सत्य हो गई।
चेलणा अपने पति को प्राणों से भी अधिक भिय मानती थी । वह अपने पति का यह कष्ट न देख सकती थी, किन्तु राज्यकी सारी सत्ता कोणिक के हाथ में होने के कारण वह कर ही क्या सकती थी ? फिर भी उसने निश्चय किया, कि-"कोणिक के अन्यायपूर्ण शासन में कदापि न रहूंगी"।
वह साहस करके श्रेणिक के कैदखाने की तरफ चली। चेलणा का प्रभाव इतना अधिक था, कि कोणिक की कड़ी-आज्ञा होने पर भी सिपाहीलोग उसे न रोक सके। वहाँ कठघरे में बन्द अपने पति को मिलने से, चेलणा को बड़ी प्रसन्नता हुई । किन्तु, साथ ही उनकी दुर्दशा देखकर उसे बड़ा शोक हुआ । उसे यह भी मालूम हुआ, कि राजा को अन्न-पानी देना बन्द कर दिया गया है और प्रतिदिन सबेरे चाबुक से उन पर मार पड़ती है । यह हाल जानकर रानी को अपार दुःख हुआ ।
उसने विचार किया, कि यदि मैं और कुछ न कर सकूँ, तो कम-से-कम पति का यह दुःख तो अवश्य कम करवा दूं।