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श्री ऋषभदेव शरीर ढाँकने के लिये कुछ कपड़े हों, तो अच्छा हो। शरीर भी जिससे ढंका रहे और सर्दी-गर्मी से भी हमारी रक्षा हो"। उनके इस विचार को जानकर श्री ऋषभदेवजी ने सोचा, कि अब मनुष्यों का काम बिना कपड़े के नहीं चल सकता । अतः उन्होंने कुछ मनुष्यों को बुलाकर कपड़े बुनना सिखलाया।
इस प्रकार, धीरे-धीरे श्री ऋषभदेवजी ने मनुष्यों को कला तथा सभ्यता की समुचित शिक्षा दी। किन्तु, अब मनुष्यों के चित्त मैले होने लगे। जहाँ देखो, वहीं झगड़ा-लड़ाई तथा जहाँ देखो वहीं परस्पर विग्रह । अन्त में, जब लड़ते-लड़ते मनुष्य दिक होगये, तब विवश होकर श्री ऋषभदेवजी के पास आये और उनसे कहने लगे-" प्रभो ! कोई ऐसी व्यवस्था कीजिये, जिससे लड़ाई-झगड़ा बन्द हो, तो अच्छा है। कोई एक-दूसरे की बात भी नहीं सुनता और सदा कलह होता ही रहता है।"
श्री ऋषभदेवजी ने कहा-" यदि, तुम लोग किसी को अपना राजा बना लो, तो यह दुःख दूर हो जाय।"
मनुष्यों ने कहा-" आप ही हमारे राजा हैं"।